मध्यपूर्व एशिया, अफ्रीका और यूरोप में छोटे छोटे देश थे, कोई भाषा को लिए, कोई रंग को लिए, कोई भौगोलिक स्थिति को लिए अपने क्षेत्र में काबिज था। अगर कोई सम्राट ताकतवर भी हो जाता तो अपनी सीमा से बाहर उसके लिए दुनिया बेमानी थी। ऐसे में राज्य के विस्तार का एक ही तरीका था कि सांसारिक सीमाओं से परे एक ऐसी छतरी बनाई जाए जो कि इन सभी को ढक ले, ऐसे में इसाई और बाद में इस्लाम संप्रदायों का उद्भव हुआ।
भारतीय मानस में जहां धर्म का अर्थ विचार पद्धति होता है, वहीं किताबत संप्रदायों में धर्म यानी संप्रदाय का अर्थ जीवन जीने के नियम होता है।
सनातन मानस कहीं अधिक विकसित और सभ्य था तो उसने विचार की स्वतंत्रता को प्रशय दिया और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक कोई भी शैव, वैष्णव या शाक्त होने के लिए स्वतंत्र था, भौगोलिक सीमाएं यथावत रहतीं। यानी धर्म, अर्थ और राज तीनों सामानान्तर चलते।
परन्तु इसाई और बाद में इस्लामिक संप्रदाय का मुख्य लक्ष्य ही राज की छतरी को फैलाना था, सो उन्होंने हर जीते गए देश को अपने संप्रदाय में दीक्षित किया, अब चाहे रंग अलग हो या भाषा – पूजा पद्धति और विशवास का आधार एक ही रहेगा और इस संबंध में कोई अंतिम निर्णय होगा तो या तो वह वेटिकन से आएगा या अरब से।
धर्म और संप्रदाय के इसी भेद को छिपाने के लिए ईश्वर अल्लाह तेरो नाम जैसे गीत गाए गए।