पिछले कई दिन से जैसे मशीन ही बन गया था। सुबह आठ बजे दिन शुरू होता और रात को तीन बजे खत्म होता। अगले दिन सुबह आठ बजे फिर दिन शुरू हो जाता। पर मजा आ गया।
अतिव्यस्तता के कारणों में से एक प्रमुख कारण था वास्तु की कक्षाएं। समर स्कूल में मुझे छह दिन तक वास्तु संबंधी कक्षाएं लेने का मौका मिला। अभी से पहले कभी पढ़ाया नहीं और पढ़ा भी ढंग से नहीं। कक्षाएं शुरू होने से पहले ही मुझे बता दिया गया कि मेरी अनौपचारिक कक्षा में एक ऐसे सज्जन ने भी पंजीकरण कराया है जो एक स्थानीय अखबार में वास्तु पर नियमित कॉलम लिखते हैं। सच पूछिए तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। बाकी प्रतिभागी भी धुरंधर थे। कक्षा शुरू होने से पहले अठारह दिन तक लगातार पढ़ता रहा। साथ ही मनन भी करता रहा कि कहां से शुरू किया जाए और कहां तक ले जाया जाए। लेकिन अब तक पढ़ा सबकुछ रिकॉल किया। सारे नोट्स दोबारा संभाले। आखिर वह दिन आ गया।
मैं समय से पहले कक्षा में पहुंचा। लेकिन कक्षा खाली मिली तो इधर-उधर घूमने लगा। थोड़ी देर बार कॉर्डिनेटर को जाकर कहा तो उसने बताया कि सभी प्रतिभागी आ चुके हैं। कक्षा के बाहर ही खड़े होंगे। मैं वापस कक्षा की तरफ दौड़ा तो वहां कुछ वरिष्ठ पुरुष और महिलाएं खड़े थे। मैं उन्हें नजरअंदाज कर कक्षा में घुस गया और बोर्ड साफ करने लगा। मैं जिस बात को अवोईड करना चाह रहा था वही हुई। सबसे पहले स्तंभकार कक्षा में आए। और आते ही मेरा इंटरव्यू लेने लगे। पूछा क्या आता है आपको वास्तु के बारे में। आमतौर पर मैं जवाब देता हूं कि कुछ खास नहीं बस सीख रहा हूं। लेकिन अपनी कक्षा में यह बात कहना और वह भी पहले प्रतिभागी को नुकसानप्रद हो सकता था। सो उनकी बात मैं हंसकर टाल गया और समर स्कूल और दूसरे विषयों पर बात करने लगा। थोड़ी देर में उन्होंने पूछा कि आपको कितने साल हुए हैं अध्ययन करते हुए। मैंने गर्व से बताया कि ग्यारह साल हुए हैं। तो वे बोले ‘बेटा’ मैं 1990 से इस व्यवसाय में हूं। मेरी पीठ पर पसीना आ गया। वैसे उस दिन गर्मी भी अधिक थी। 🙂
खैर एक एक कर सभी प्रतिभागी अंदर आते गए और मैं किसी तरह अपना कांफिडेंस संभाले बैठा रहा। सबसे अच्छी बात यह रही कि एक हंसमुख बच्ची भी वास्तु की कक्षा में थी। मैंने उसी से शुरूआत की। मैंने उससे पूछा क्या होता है वास्तु। वह मुस्कुराई और जो भी उसके मन में आया बोलती गई। मेरा काम आसान हो गया। उसकी गलतियों को सुधारते हुए मेरी गाड़ी चलने लगी। पहले दिन आसानी से डेढ़ घण्टे तक मैं वास्तु के मूल सिद्धांतों के बारे में बताता रहा और उसी दिन मैंने सभी प्रतिभागियों को वास्तु की एक पुस्तक भवन भास्कर जो गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित है लाने के लिए कह दिया। यह मेरी पसंदीदा किताब है। फेंग शुई से अछूती और प्राचीन सिद्धांतों से परिपूर्ण। कहीं कोई शंका की गुंजाइश नहीं।
कक्षा खत्म होते ही घर आया और किताब को एक बार फिर पूरी पढ़ गया। अब मैं फुल चार्ज था। अगले दिन उन्हीं स्तंभकार ने दो-तीन बार मुझे टोका लेकिन मैं अपनी रौ में फ्रायड, डेल कारनेगी, स्टीफन आर कोवे, एलन पीज और विवेकानन्द तक के उद्धरण देते हुए अपनी बात पूरी करता गया और प्रतिभागियों के समक्ष तस्वीर स्पष्ट होती गई। हर किसी के दिमाग में कहीं न कहीं कोई न कोई भ्रांति पहले से थी। अधिकांश ने पहले से वास्तु का कुछ न कुछ अध्ययन किया हुआ था। अच्छी बात यह थी कि किसी ने भवन भास्कर नहीं पढ़ी थी। हर रोज एक विषय लेकर उसे पूरा करता और कक्षा के अंत तक किसी ने किसी मॉडल का विश्लेषण करता। पांचवे दिन प्रतिभागी परफेक्ट मॉडल बनाकर लाए। उन मॉडल्स में गलतियां बताई और आखिरी दिन तो दो मॉडल बिल्कुल परफेक्ट बन गए। हर दिन मेरे और मेरे प्रतिभागियों के चेहरे पर चमक बढ़ती गई। बस एक गड़बड़ हुई कि आखिरी दिन स्तंभकार महोदय नहीं आए। कक्षा खत्म होने के बाद उनका फोन आया। बोले मैं किसी कारणवश आ नहीं पाया इसलिए माफी चाहता हूं। मैंने कहा कोई बात नहीं। उस समय मैं कॉर्डिनेटर के पास बैठा था। उन्होंने कहा परीक्षा से डर से नहीं आए होंगे। मैंने कहा परीक्षा की तो कुछ बात ही नहीं थी। तो उन्होंने बताया कि हर कोर्स में आखिरी दिन परीक्षा का प्रावधान है। उसमें टॉप रहने वाले विद्यार्थी को पुरस्कृत किया जाएगा।
अब बात मेरी समझ में आई कि स्तंभकार महोदय को लगा कि मैं परीक्षा लूंगा और फेल कर दूंगा तो उनकी फजीहत होगी लेकिन हकीकत में मुझे परीक्षा के बारे में जानकारी ही नहीं थी। खैर मैंने एक टॉप विद्यार्थी का नाम बता दिया जिसे पुरस्कृत किया जाएगा।
इस तरह छह दिन का समय इतना अधिक व्यस्तता वाला रहा कि न तो ब्लॉग पढ़ पाया न लिख पाया। रात को दो बजे के बाद भी बैठता तो केवल केरल पुराण की कोई नई कथा पढ़ने या इक्का दुक्का दूसरे ब्लॉग देखने। इसी दौरान कुर्सी पर ही नींद आ जाती।
खैर आज पुरानी सारी मेल देखी। ज्योतिष दर्शन पर लेख डाला और यहां आपबीती सुनाने आ गया। अच्छा रहा ये सप्ताह…