एक जगह ओशो ने लिखा कि भारत सतत क्रांति के दौर से गुजर रहा है। मैं भी क्रांति करने के मूड में आ गया। कई तरह की क्रांतियां की।
जिस जमाने में बच्चों को साइकिल भी नहीं दी जाती थी, उन दिनों में एम-80 चलाई। यानि ग्यारह साल की उम्र में चार फीट की हाइट के साथ अपनी अस्सी किलोग्राम वजनी नानी को पीछे बैठाकर पांच किलोमीटर दूर स्थित स्कूल में छोड़कर आता था। इसके बाद दूसरी क्रांति तब हुई जब दसवीं पास करने पर साइकिल खरीदने का फैशन आउट होने के बाद साइकिल खरीदकर लाया। घर वालों ने दिलाने से मना कर दिया तो, खुद अकेला जाकर खरीद लाया। भले ही बाद में अपने उस निर्णय पर पछतावा हुआ। ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में जितने ट्यूशन थे सब साइकिल पर आ गए। घर में मोटर वाले वाहन होने के बावजूद पैरों का पानी गन्ने की तरह निकल गया। टांगें भी कमोबेश गन्ने की तरह हो गई। लेकिन एक सच्चे क्रांतिकारी की तरह दूसरे सभी युवकों और युवतियों को वाहनों पर जाते देख न केवल व्यंग्य से मुस्कुराया करता बल्कि अपने साइकिल चलाने की सार्थकता पर भी लगातार सोचता रहता।
पुरातनपंथियों ने भी मुझे बरगलाने में कोई कसर नहीं रखी। मुझे बताया गया कि ज्यादा साइकिल चलाने से घुटने खराब हो जाते हैं, पाइल्स की समस्या हो जाती है। एक ने तो आंकड़ों के साथ सिद्ध किया कि इससे हृदय गति तक रुक जाती है।
खैर कुछ सालों बाद एक पुराने स्कूटर ने मुझे बदलाव का रास्ता दिखाया। नई नौकरी के साथ मिला पुराना स्कूटर मेरी बहुत कड़ी परीक्षा लेता और मैं फिर से साइकिल के बारे में सोचने लगता। शादी के साथ पल्सर मिली। तब से लेकर छह दिन पहले तक किक मारने के लिए भी टांग नहीं हिलाई। लम्बे समय तक आराम की अवस्था ने एक बार फिर क्रांति की स्थितियां पैदा कर दी।
कई दिन तक सोचने, कसमें खाने, वादे करने और मन को कड़ा करने की कार्रवाई के बाद एक ऐतिहासिक दिन (डेट तो रसीद में लिखी हुई होगी, उठकर देखूंगा तो फ्लो टूट जाएगा) मैं फिर से साइकिल खरीद लाया। इस बार थोड़ी स्टाइलिश है। थोड़ी इसलिए कि भाई साथ में था। वह पुरातनपंथियों की साजिश में हमेशा साथ रहता है। उसने गियर और शॉकर वाली साइकिल के विरोध में अपना वीटो पावर पेश कर दिया। सो दोनों तरह की खासियत इस साइकिल में शामिल नहीं कर पाया। जो भी हो इसके हैण्डल सीधे-सीधे नहीं है, यानि सीधे हैं पुरानी साइकिलों की तरह टेढ़े नहीं हैं।
पांच दिन से साइकिल चलाकर बीकानेर में सतत क्रांति के दौर को फिर से जगाने का प्रयास कर रहा हूं। अब तक कुल जमा 23 लोगों ने साइकिल का ट्रायल लिया है। दस मीटर से लेकर सत्तर मीटर तक के ट्रायल हुए हैं। मेरे कपड़ों, मोबाइल, घड़ी और दूसरे सहायक उपकरणों की तुलना में पांच ही दिनों में साइकिल ने दस गुना कमेंट बटोर लिए हैं।
इसी के साथ एक रहस्योद्घाटन भी हुआ है कि गरीब, दलित, पिछडि़त, दया का पात्र व्यक्ति साइकिल चलाए तो उस पर कोई ध्यान नहीं देता, लेकिन एक मोटा, चमकते चेहरे वाला, जींस टीशर्ट पहना आदमी तबियत से धीरे-धीरे साइकिल चलाता जाए और उसके चेहरे पर खुशी के भाव हो तो पास से मोटर वाले दुपहिया या चार पहिया वाहन पर निकल रहा व्यक्ति भी पहले तो गौर से देखता है फिर ईर्ष्या से भर उठता है। ऐसे लोगों के भाव तो अधिक मुखरता से सामने आते हैं जिनके वाहन का पैट्रोल खत्म हो चुका होता है और वे सामने से अपनी गाड़ी घसीटते हुए आ रहे होते हैं।
जो भी हो एक और क्रांति का सूत्रपात हो चुका है, जल्द ही बीकानेर में साइकिल चलाने वालों की संख्या बढ़ी हुई दिखाई देने लगेगी। मैंने यह नहीं कहा कि संख्या बढ़ जाएगी। यह सावन के अंधे वाली बात भी हो सकती है।